देखनेवाले ने आँखें ही बंद कर रखी हैं या फिर तिलस्मी चादर ओढ़ रखी है मैंने,
के दिखाई ही नहीं देती मैं.
दिखाई देती है ज़मीं और उन ज़र्रों का बनके तारे टिमटिमाना भी,
पर क्योंकर आग की लपटों में सिमटकर भी, दिखाई ही नहीं देती मैं?
क्या पड़ेगा फरक उस सुबह को, जब मैं उठूं ही नहीं
रात की गहराइयों से निकलूँ ही नहीं
मूंदी हुई आँखें खोलूं ही नहीं
मुमकिन है के दिखेगा सबकुछ,
पर कफ़न में लिपटकर भी,
दिखाई ही नहीं देती मैं
के दिखाई ही नहीं देती मैं.
दिखाई देती है ज़मीं और उन ज़र्रों का बनके तारे टिमटिमाना भी,
पर क्योंकर आग की लपटों में सिमटकर भी, दिखाई ही नहीं देती मैं?
क्या पड़ेगा फरक उस सुबह को, जब मैं उठूं ही नहीं
रात की गहराइयों से निकलूँ ही नहीं
मूंदी हुई आँखें खोलूं ही नहीं
मुमकिन है के दिखेगा सबकुछ,
पर कफ़न में लिपटकर भी,
दिखाई ही नहीं देती मैं
I've always loved your hindi poems...because it reminds me of Gulzar-ji's writs
ReplyDeletethat is so sweet n kind of u ya...he is the master am the pupil :)
ReplyDeleteIf in end comes "मुमकिन है के दिखेगा सबकुछ,
ReplyDeleteपर कफ़न में लिपटकर भी,
दिखाई नहीं दूंगी मैं।" won't it be more touching, as it is breaking the tense here... You may ignore, just a thought. Good work here :)
Now that I read it again, I see what you mean. You have a point there. Let me see.
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