चुपके से आकर सरसराते हुए पत्तों की कानाफूसी के संग वो अपनी बात कह जाती है. कभी पीठ पीछे इशारे से जता जाती है. तो कभी रूठी गोपियों सी आँखों में आँखे डाल कर शिकायत करती है, "अकेले ही आए थे, जाना भी अकेले ही है फिर क्यों भीड़ इकठ्ठा कर रहे हो?"
हम भी उसी बयार की ठंडक में जवाबी आह भर देते हैं. उन्ही इशारों का जवाबी करतब दिखा देते हैं. बैरी सौतन गोपियों से गुस्से में आकर आँखों में आँखें डाल कर जवाब देते हैं, "अकेला नहीं हूँ मैं. दोस्तों का काफिला है. हमसफ़र का साथ है. बुजुर्गों की दुआ है झोली में. अकेला नहीं हूँ मैं."
ज़िन्दगी अपनी बात मनवाने पर तुली है और मैं अपनी.
इसी बीच जो बसर हो रही है वही है मेरी उम्र.
Nice ! :)
ReplyDeleteहृषिकेश मानवलेलं दिसतंय ! :)
hoy hoy manavlay mast :)
ReplyDeleteमला गुलजार आणि तुझ्यामध्ये काय साम्य वाटतं माहितेय... तुम्हा दोघांचे काव्य वाचताना एखाद्या स्वप्नवत नगरात आल्यासारखे वाटते...
Deletearey kaay he...chakka konhashi compare kelas re :) 'come with me' is what every writer thinks when he/she wants to take his/her readers into another world :)
DeleteVery nice:)last two lines sum up life
ReplyDeletethanks smita :)
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