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Friday, October 11, 2013

जादुई जेबखर्च


मुझे जेबखर्च मिलता है। और जेबखर्च में मिलते हैं २४ घंटे।

रोज़ के रोज़।

मेरी बुद्धि, ज़रुरत और इच्छा के अनुसार मैं उन २४ घंटों को खर्च करती हूँ। जादुई जेबखर्च है ये।

रोज़ मन भर के लुटाने पर भी रात को सोते वक़्त कुछ न कुछ बच ही जाता है। बचत भी ऐसी के न किसी खाते में जमा कर सके कोई और न ही ब्याज खा सके।

हर दिन की बची  पूँजी को आँखें मूँद कर वापस कर देती हूँ; उसी को जिसने दिए थे।
बही-खाता बराबर।

फिर अगली सुबह मेरे हाथों में वही जादुई जेबखर्च रख दिया जाता है। पूरे २४ घंटे।

2 comments:

  1. First time here and top most post is quite powerful and deep. I have never thought of something like this in relation to time and mind. And after reading your lines on the same I am thinking and smiling and wondering how true each and every word is here. I can connect to it totally! :)
    While I love to read Hindi poetry and do write sometimes too, I really like your thought process here :)

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    1. Hi Shesha
      Happy to have you here exploring the nooks & corners of Raindrop. I am on Elixired…reading it and getting an insight into young minds. What fun :)

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Thanks for stopping by :)